*राष्ट्रीय एकता और शिक्षकों की भूमिका*
राष्ट्रीय (दैनिक कर्मभूमि) अंबेडकर नगर
आचार्य चाणक्य ने कहा है-“शिक्षक साधारण नहीं होता है।प्रलय और निर्माण उसकी गोंद में पलते हैं।”जिससे साफ-साफ परिलक्षित होता है कि किसी भी राष्ट्र की अक्षणुता,एकता,समता,समृद्धि और उत्कर्ष के असली संवाहक तथा सामाजिक परिवर्तन के केंद्रबिंदु शिक्षक राष्ट्रीय एकता की नींव होते हैं।राष्ट्र का उत्कर्ष और पराभव शिक्षकों के कृत्तित्व पर ही निर्भर करता है।यही कारण है कि शिक्षकों को राष्ट्रनिर्माता कहते हुए उनकी गुरुतर भूमिका और उनके दायित्व का निर्धारण किया जाता है।
इतिहास साक्षी है कि शस्त्र और सेनाओं के रहने के बावजूद जबजब शिक्षक अपने जीवनमूल्यों और उद्देश्यों से विरत हुए हैं,तबतब विदेशी आक्रांताओं सहित अनेकानेक राष्ट्रविरोधी शक्तियां पनपी ही नहीं अपितु हमारी सांस्कृतिक व सामाजिक संरचना को तारतार की हैं।कदाचित भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो यह ध्रुव सत्य है कि जबजब शिक्षकों ने अपने दायित्वों का निर्वहन बखूबी किया है तबतब यह राष्ट्र पुनिपुनि नए कलेवर में निखरकर उभरा है।अतएव राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया की धुरी सिर्फ और सिर्फ शिक्षक ही होता है,यह कहना सर्वथा प्रासङ्गिक और उचित है।
शिक्षक समाज का बौद्धिक सदस्य होने के साथ-साथ एक चिंतक,विचारक औरकि अतिसंवेदनशील प्राणी होता है।राष्ट्र के उत्थान और सम्भावित चुनौतियों के प्रति उसे स्वयम जागरूक रहने की नैसर्गिक शक्तियां ईश्वरीय प्रदत्त होती हैं किंतु जब सियासत की बयार में शिक्षक जाति, वर्ग,धर्म और विभेदनकारी भावनाओं का शिकार हो अपने उद्देश्य से भटकने लगते हैं,तो देश भी पराभव की ओर जाने लगता है।यही स्थिति राष्ट्रीय एकता के लिए सबसे बड़ी बाधा बनती है।कहना अनुचित नहीं होगा कि आज शिक्षकों के अंदर दिनोंदिन पनपती यही भावनाएं किसी ब्रह्मास्त्र से अधिक घातक दिख रहीं हैं।अतः समय रहते एकबार पुनः शिक्षकों को आत्ममंथन और आत्मावलोकन करते हुए संक्रमण के दौर में फिरसे अपने दायित्वों का निर्वहन करने का समय है न कि सियासत की आंच में झुलसने का।
प्रश्न जहाँतक शिक्षकों के अंदर दिनोंदिन पनपती जातीयता,धार्मिक दुर्भावना और विभेदनकारी कुप्रवृत्तियाँ का है तो इसके लिए शिक्षक स्वयम जिम्मेदार है।अतः शिक्षकों को ही स्वयम मनन करना होगा।एक सामाजिक सदस्य होने के बावजूद शिक्षक समाज का सामान्य की जगह अतिविशिष्ट प्राणी होता है।अतः शिक्षकों को सबसे पहले सामाजिक बुराइयों के निराकरण में अपना योगदान देते हुए कक्षाकक्ष में विद्यार्थियों के मन,मस्तिष्क और आत्मा में समता,ममता और एकता की भावनाओं को पिरोना होगा।उन्हें ऐसा आचरण करते हुए स्वयम एक प्रतिमान बनना होगा।अगर शिक्षक ऐसा करने में सफल रहते हैं तो देश की अखंडता और सम्प्रभुता को कोई आंच नहीं लग सकती और यदि इसमें विफल रहते हैं तो राष्ट्र के पराभव की एकमात्र जिम्मेदार शिक्षक और सर्फ शिक्षक ही होंगें।
आज देश में मदद के नामपर मतांतरण,युवाओं के अंदर नशे की बढ़ती प्रवृत्ति,जाति और समुदाय के आधार पर विभेद की बातें,धार्मिक कट्टरता,असहनशीलता की प्रवृत्ति और उपभोक्तावाद की निरंतर बढ़ती प्रवृत्तियों के पीछे किसी न किसी विघटनकारी शक्तियों का हाथ दृष्टिगोचर होता है।इन शक्तियों को बल और शस्त्र से रोकना कदाचित मुमकिन नहीं है।अतः इनको रोकने औरकि जड़ से उन्मूलित करने हेतु शिक्षकों को ही आगे आना होगा।शिक्षकों को विद्यार्थियों को यह समझाना होगा कि ऐसा होने पर हम खण्ड खण्ड टूटकर पुनः सिकन्दर के आक्रमण के पूर्व की स्थिति में आ जाएंगे और ऐसी स्थिति में किसी का भी उत्थान सम्भव नहीं होगा।यदि विद्यालय अपनी भूमिका के निर्वहन में सफल हुए तो इस राष्ट्र को पुनः वैभवशाली बनने से विधाता भी नहीं रोक सकते हैं।
इक्कीसवीं सदी में हालांकि शिक्षकों के समक्ष जहाँ गम्भीर चुनौतियां हैं वहीं उनकी अपनी भी व्यक्तिगत समस्याएं भी कुछ कमतर नहीं हैं।सरकारों द्वारा उन्हें पुरानी पेंशन व अनिवार्य जीवन बीमा से विरत करना,तदर्थ और वित्तविहीन शिक्षकों का आर्थिक तथा मानसिक शोषण किया जाना व कार्यालयों में प्रत्येक कार्य के लिए घूस लिया जाना आदि आदि ऐसी स्थितियां हैं जिनके कारण शिक्षक क्षुब्ध और कि व्यथित हैं।किंतु यह भी सत्य है कि शिक्षकों का उत्कर्ष उनकी व्यथा में ही छिपा है।जबजब शिक्षक व्यथित होता है तबतब वह एकजुट होते हुए संघर्ष के नए मापदंडों का निर्धारण करते हुए अपने उद्देश्यों की पूर्ति में जुटता है।अतः शिक्षकों को हताश,निराश होने की बजाय यह समय एकजुटता दर्शाते हुए अपने उद्देश्य निर्धारण का है न कि जातीय भावनाओं से ग्रसित हो महज वैतनिक कर्मचारी बनने का।
सारसंक्षेप में इतना ही कहना समीचीन है कि शिक्षक सामाजिक परिवर्तन के मुख्य आधार हैं।विद्यालय उनकी प्रयोगशाला और विद्यार्थी उनके मुख्य संवाहक हैं।अतः शिक्षकों को पाठ्यक्रम के साथ-साथ राष्ट्रीयता का पाठ भी अब विद्यालयों में पहले से बेहतर ढंग से पढ़ाना होगा।परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों किन्तु इस दायित्व से शिक्षक स्वयम को मुक्त नहीं कर सकते।राष्ट्रनिर्माण की बलिबेदी पर शिक्षकों को अपने जातीय,धार्मिक व आर्थिक विभेदों की बलि देते हुए आगे बढ़ना ही राष्ट्रीयता के विकास का मार्ग है।
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