उत्तर प्रदेश ( दैनिक कर्मभूमि ) जौनपुर
अयोध्या।एक साधारण संन्यासीका समस्त शङ्कराचार्यों से विनम्र आग्रह। इस सम्बन्ध में प्रयागराजमें प्रवास कर रहे दण्डी स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्रानन्द सरस्वती जी से प्रश्न किया गया तो उन्होने बताया कि संन्यासी हो या गृहस्थ, शास्त्रों में वसीयतकी कल्पना ही नहीं है। वसीयत शब्द और इसकी प्रक्रिया विधर्मियों की देन है। वसीयत का अर्थ है- “अन्तिम इच्छापत्र”। और इसका सीधा सम्बन्ध निजी सम्पत्ति से होता है। धर्मप्राण सनातनी के लिये अन्तिम इच्छा मोक्ष होती है , सम्पत्ति नहीं। इसलिये शास्त्रों में इच्छापत्र की व्यवस्था ही नहीं की गयी। यहां तक कि गृहस्थके लिये भी नहीं। फिर संन्यासी द्वारा वसीयत की तो शास्त्रकारोंने कल्पना ही नहीं की जा सकती थी । संन्यास और वसीयत परस्पर विरोधी अवधारणायें हैं। संन्यासी की अन्तिम इच्छा मठ और आश्रम में अटकी हुयी हो तो वह कैसा संन्यासी ?
वसीयत को कानूनी मान्यता है। किन्तु स्वामीजी का कहना है कि धर्मदृष्टिसे सनातनधर्मी के लिये आदर्श यह है कि अपने जीवन काल में जो व्यवस्था करनी हो कर दे। मध्यम यह है कि वसीयत की व्यवस्था गृहस्थों तक सीमित रहे । किन्तु संन्यासी द्वारा वसीयत की परम्परा चलाया जाना तो निकृष्ट और हेय है। स्वामीजी ने बताया कि पूर्वकाल में शङ्कराचार्य पीठों में वसीयत के उदाहरण मिलते हैं। किन्तु वे सब शास्त्रविरुद्ध हैं। स्वामीजी के अनुसार, शङ्कराचार्य पदकी वसीयत न तो शास्त्रसम्मत है न ही विधिसम्मत। आज के संसदीय कानून के अनुसारभी किसी “पद” की वसीयत नहीं हो सकती। कानून में किसी व्यक्तिको केवल निजी सम्पत्ति का वसीयत करने का अधिकार है। स्वामीजी का कहना है कि, अब तक शङ्कराचार्य पीठों से सम्बन्धित जितनी वसीयतें न्यायालयों में आयीं उनमें इस प्रश्न पर विचार ही नहीं हुआ। उन्होने कहा कि “हम सभी शङ्कराचार्यों से आग्रह करते हैं कि वसीयत पद्धति को बढा़वा देना शङ्कराचार्य पीठों के लिये उचित नहीं। पूज्यपाद शङ्कराचार्योंको शास्त्रीय पद्धति से उत्तराधिकारी की स्पष्ट औपचारिक घोषणा करते हुये अभिषेक कर देना चाहिये जैसाकि श्रृंगेरी और काञ्ची कामकोटि में होता है। अन्यथा यह माना जायेगा कि उनकी दृष्टि में कोई भी योग्य उत्तराधिकारी नहीं है और वे पीठके भविष्य का निर्धारण अन्य लोगों पर छोड़ना चाहते हैं।”धर्म की जय हो अधर्म का नाश हो
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