उत्तर प्रदेश ( दैनिक कर्मभूमि)जौनपुर
जौनपुर।कोरोना के दूसरे लहर में मची अफरा- तफरी के बीच मै आप सबसे गुजारिश करूंगा की जैसे भी हो सके जितने लोगो की जान बचा सके बचाओ । आपको अगर जान बचाने के लिए झूठ भी बोलना पड़ रहा हो तो बोलो पर लोगो को इस विपत्ति से मुक्त कराने का संपूर्ण प्रयास करों ।मैंने पत्रकारिता में अभी तक जितने सम्बन्ध कमाए थे, सारे इस्तेमाल कर लिए । अगर किसी मरीज़ के नाम के पीछे चौबे, दूबे, मिश्रा,त्रिपाठी , जोशी, शुक्ला, उपाध्याय, पाठक लगा मिला तो तुरंत उसे रिश्तेदार बता दिया और अपने डाक्टर मित्रों से संपर्क साधा , डॉक्टर साहब तुरंत बोले भेज दो देखते है क्या किया जा सकता है । परसों एक साहब को बहनोई का साला बताकर वाराणसी के एक अस्पताल में बेड दिलवाया तो डिटेल देखकर हमारे डॉक्टर मित्र बोले भाई साहब ये तो क्षत्रिय है । आप तो रिश्तेदार बता रहे थे । मैंने तुरंत पलटी मारी कि हमारी सिस्टर के हसबैंड के दोस्त के रिश्तेदार है ,हेल्प कर दीजिए ना ,भला होगा । ख़ैर हमारी क्षणिक हकलाहट से हमारा झूठ समझ तो गए लेकिन हमारा सम्मान रखते हुए कोई वाद-विवाद नहीं किया । कल रात हमारी धर्मपत्नी जी के भाई का फ़ोन आया कि सासू माँ का ऑक्सीजन लेवल कम हो गया जिससे उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गई बहुत दुख हुआ , मन द्रवित था फिर भी मन में दृढ़ निश्चय लिए लोगो की मदद जारी रखे है, डॉक्टर जितने है सबसे बात कर रहा । अभी आजमगढ़ के डी आई जी सुभाष दूबे जी के माध्यम से भी एक बेड की व्यवस्था बनाया जहां एक परिचित के रिश्तेदार को भर्ती मिल सकी । कल दिल्ली में मैंने एक प्रतिष्ठित हॉस्पिटल के मालिक को मैसेज किया, जो मेरे प्रशंसक भी है मेरे आर्टिकल पढ़ते भी है , कि मुझे एक ऑक्सीजन बेड की आवश्यकता है, मेरी मित्र की मां बीमार है । मैं पूर्व में भी डॉक्टर साहब को कई बार अनजान मरीज़ों के लिए परेशान कर चुका हूँ और उन्होंने मेरी हर बात का सम्मान रखा लेकिन इस मैसेज को उन्होने भी सीन नहीं किया । हालात ये है अगर आज की तारीख़ में मुझे या मेरे परिवार को किसी सहायता की आवश्यकता पड़े तो भी कोई मेरा फ़ोन ना उठाए । जब बचपन में कभी झूठ पकड़ा जाता था, तो पापा बहुत डाटते थे और कहते थे, कि झूठ तब बोलो जब किसी की जान जा रही हो । मुझे नहीं पता था कि आगे सारे झूठ जान बचाने के लिए ही बोलने पड़ेंगे । मैं मात्र पिछले डेढ़ साल से मीडिया सोसायटी में आया हूं । मैंने कभी गाँव में रहते हुए अपने घर , बाड़े में सरकारी कोटे से एक नल भी नहीं लगवाया । धर्मपत्नी हमेशा कहती रही है कि क्या लिखते रहते हो क्या मिलता है ? दादा जी कहते है बड़े पत्रकार हो घर पर एक नल ही लगवा दो या रास्ता ही बनवा दो ।” बस मुस्कुराकर हमेशा उनकी बात अनसुनी कर दी ।
जो भी मेरा ये लेख पढ़ रहे हैं, उनसे विनम्र अनुरोध है कि अगर सहायता करना संभव नहीं है तो मुझसे स्पष्ट मना कर दें । मैं बिलकुल बुरा नहीं मानूंगा और स्थिति सामान्य होने के बाद भी हमारे संबंध ऐसे ही मधुर बने रहेंगे लेकिन मेरा फोन उठाना बंद ना करे । परमपिता पर पूर्ण विश्वास है, वो सब संभाल लेंगे । जल्द ही हम सब इस विषम परिस्थिति से बाहर होंगे । सबको साथ लेकर चलने में ही भलाई है । अपना निजी हित और फायदा कुछ समय के लिए कृपया घर के आलमारी में बंद करके , मेरे साथ सहायता के लिए कदम बढ़ाए । जय हिन्द ।
— पंकज कुमार मिश्रा , एडिटोरियल कॉलमिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार, केराकत जौनपुर
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