शिक्षक का सम्मान और राष्ट्र का उत्कर्ष

राष्ट्रीय दैनिक कर्म भूमि अंबेडकर नगर

कहा गया है:अखंड मण्डलाकारम
व्याप्तम येन चराचरम।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः।।इस प्रकार प्रभु से एकाकार और परमेश्वर का साक्षात्कार कराने वाले गुरुओं के श्रीचरणों की महत्ता स्वयमसिद्ध व प्रमाणित है।किंतु कदाचित देशकाल परिस्थितियों के अनुसार समय समय पर शिक्षकों को भी अपने में परिवर्तन करना पड़ा है।राष्ट्र की अस्मिता और संस्कृति कर रक्षार्थ शिक्षकों को भी शास्त्र का साथ -साथ शस्त्र उठाना पड़ा है।इतिहास साक्षी है कि चाहे गुरु द्रोण हों या कुलगुरु कृपाचार्य या गुरुपुत्र अश्वस्थामा या फिर आचार्य चाणक्य या फिर समर्थ गुरु रामदास या भामाशाह या फिर भारत की स्वाधीनता की लड़ाई सबमें शिक्षकों के त्याग,बलिदान और सङ्घर्ष की गाथाएं आज भी वर्मन स्वरूप देदीप्यमान हैं।किंतु फिर भी यक्ष प्रश्न है कि आखिर स्वतंत्र भारत में शिक्षकों को वह अपेक्षित सम्मान व गौरव आखिर क्यों नहीं मिल रहा है,जिसके वे हकदार और अधिकारी हैं औरकि उच्च शिक्षित लोग भी शिक्षा ग्रहण करने का बावजूद जातिगत तुच्छ संकीर्णता,भ्रष्टाचार और राष्ट्र के प्रति गैरजिम्मेदार बनते जा रहे हैं।क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था या फिर शिक्षकों में कहीं कोई कमी है याकि शासन,प्रशासन दायित्वहीन होता जा रहा है,जो भी कारण हो इन सब चीजों से जिसे सर्वाधिक क्षति पहुंच रही है वो है राष्ट्रधर्म की भावना का दिनोंदिन ह्रास और व्यक्ति व्यक्ति में पनपती दायित्वहीनता की प्रवृत्ति।जिससे राष्ट्रीयता को चोट पहुंच रही है।
कदाचित यह कहना अनुचित नहीं होगा कि शिक्षक का उत्कर्ष राष्ट्र के उत्कर्ष से जुड़ा है।हमारा शिक्षक समुदाय और विद्वत परिषद तब गौरवशाली होगी जब यह राष्ट्र गौरवशाली होगा।यह राष्ट्र तब गौरवशाली होगा जब एक एक शिक्षक अपने दायित्वों का निर्धारण करने और राष्ट्रीयता के बाधक तत्वों का उन्मूलन करने के उपायों और उनके प्रति निर्धारित उद्देश्यों की सफलता के प्रति जागृत होगा।इतिहास प्रमाण है कि राष्ट्र की राष्ट्रीयता और एकता तब तब खण्ड खण्ड हुई है जब जब यहां का शिक्षक अपने उद्देश्यों से विरत हुआ है।अतः राष्ट्रीय जागरण से पहले शिक्षकों का जागृत होना अनिवार्य है।यदि ऐसा नहीं होता है तो पराधीनता की एक और कड़ी से इनकार नहीं किया जा सकता।
शिक्षकों को यह स्मरण करना होगा कि यदि उनके द्वारा दिए गए पुस्तकीय ज्ञान विद्यार्थियों को जातिवाद,धार्मिक कट्टरता और दायित्वहीनता जैसी दुःवृत्तियों में उलझाकर राष्ट्र को चुटहिल करते जा रहे हैं तो फिर उन्हें स्वयम आत्ममंथन करना होगा।अपनी शिक्षण पद्धति में परिवर्तन करना होगा।ध्यातव्य है कि संस्कार और चरित्र कभी भी पुस्तकीय ज्ञान से नहीं अपितु सतत अभ्यास और सदवृत्तियों व आदतों के समन्वय से बनते हैं।जिन्हें प्रतिष्ठापित करने के लिए घर और विद्यालय दोनों ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।अतः शिक्षकों को समाज से सम्पर्क बनाते हुए प्रत्येक कक्षा शिक्षण में कमसे कम पांच मिनट का समय दृष्टांत या कथा-कहानी या अनुभवों पर आधारित महानलोगों के विवरण प्रस्तुत करने चाहिए।जिससे विद्यार्थी भी उनका अनुकरण करते हुए महाजनों येन गतः सपंथा का अनुसरण करें।कदाचित सदाचारी योग्य विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास ही राष्ट्र के उत्कर्ष का प्रमुख हेतु और सहज उपागम है और यही शिक्षक का प्रमुख कर्तव्य भी है।
-उदयराज मिश्र
शिक्षाविद एवम साहित्यकार

रिपोर्ट अरविंद कुमार राष्ट्रीय दैनिक कर्मभूमि टांडा अंबेडकर नगर