राष्ट्रीय दैनिक कर्मभूमि अंबेडकरनगर
किसी भी राष्ट्र के पुनर्जागरण और सामाजिक तथा शैक्षिक परिवर्तन में अखबारों का सदैव से महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।राष्ट्र की सुषुप्त जनचेतना को जागृत करने की दिशा में अखबार और मीडिया किसी टॉनिक से कम नहीं होते।किन्तु जब लेखनी जातिगत,दलगत और धर्म आधारित मानसिकता से ग्रस्त हो झूठ को चतुराईपूर्वक सत्य साबित करते हुए अपने मापदंडों को छोड़ अन्य मार्गों का अनुसरण करने लगती है तो कदाचित उद्दंड मार्तंड से शुरू हुआ सामाजिक जनचेतना का यह माध्यम निश्चित ही अपने मार्ग से भटकता हुआ प्रतीत होता है,जोकि राष्ट्रीय एकता और सामाजिक परिवर्तन के लिए अशुभ संकेत होता है।
समाचार पत्र देश के सुदूर दुर्गम से अगम्य स्थलों से लेकर किसान, मजदूर, शोषित,उत्पीड़ित और आमजनमानस के मुंह और उनकी आवाज होते हैं।जिनकी सहायता से आमजनता की समस्याएं,उनकी जरूरतें,देश की आवोहवा और अन्य सभी सूचनाएं संसद में चर्चा का विषय बनने कर साथ-साथ विचार विनिमय होता है।आमजनता भी समाचारपत्रों की सहायता से ही विश्वस्नीयतापूर्वक जनहित की योजनाओं, राष्ट्रीय चुनौतियों और देश की आवश्यकताओं की जानकारी प्राप्त करती है।अखबारों की महत्ता इस बात से भी जाहिर होती है कि राष्ट्र का पुनर्जागरण भी अखबारों की सहायता से ही शीघ्रगामी होते हैं।किसी शायर ने ठीक ही कहा है कि-
“न तेग चलाओ न तलवार निकालो।
जब तोप मुख़ालिक,अखबार निकालो।।”
राष्ट्रीय जनजागरण और वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया हाउस की भूमिका के बाबत राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत संस्कृत के प्रकांड विद्वान आचार्य हरिहर नाथ मिश्र के अनुसार आजादी के पूर्व अखबारों को ही पढ़कर लोग राष्ट्रीय आंदोलनों में प्रतिभाग लेने को उद्यत होते थे।जबकि आज़ादी के बाद अखबारों को पढ़कर व रेडियो के समाचारों को सुनकर ही आमजनता अपनी मनोवृत्ति बनाती थी।श्री मिश्र के अनुसार 1965 के भारत पाक युद्ध में जहाँ आम जनमानस भी शास्त्री जी के आह्वाहन पर देश के साथ खड़ा हुआ था वहीं अखबारों ने भी बढ़चढ़कर राष्ट्रीयता से परिपूर्ण खबरें,सम्पादकीय आदि प्रकाशित करते हुए अपनी मतबूत उपस्थिति दर्ज कराई थी।लिहाजा देश मे जोश था और अमेरिका जैसे देश द्वारा भी पाक का समर्थन करने से देश इंचभर डिगा नहीं।उन्होंने अखबारों के नाम मीडिया हाउस जैसे सम्बोधनों से जोड़ने को ही अखबारों के लिए घातक बताया।
वस्तुतः आज की हिंदुस्तानी मीडिया छद्मवेश धारण किये हुए है।बाहर से निष्पक्ष दिखने वाले समाचारपत्र,टीवी चैनल,न्यूज पोर्टल और वेबसाइट्स भी दलगत,जातिगत व धर्म आधारित भावनाओं से प्रेरित दिखते हैं।समय के साथ-साथ सम्पादकों व प्रकाशकों को भी राजनीति के नशे ने अपने आगोश में जबसे लेना शुरू किया औरकि जबसे अखबारों के पत्रकार आदि एमएलसी व विधायक आदि बनने की चाह में राजनेताओं के समर्थक बनने लगे तबसे अखबारों की मुख्य भूमिका भी हाथी दांत की तरह हो गयी।कदाचित यही हाल टीवी चैनलों व न्यूज पोर्टलों का भी है।जिससे जनजागरण नकारात्मक दिशा में होने से देश में जातिवाद,वर्गवाद,क्षेत्रवाद,पंथवाद आदि कुप्रवृत्तियाँ दिनोंदिन बढ़ने लगीं हैं,जोकि राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए किसी भी स्थिति में उचित नहीं कही जा सकतीं हैं।
प्रश्न जहाँ निष्पक्ष समाचारपत्रों व टीवी चैनल्स का है,तो ऐसा नहीं कि सबकेसब विलुप्त हो गए हैं।हां, उनकी संख्या अब घटती जा रही है।सरकारी विज्ञापन का न मिलना,पत्रकारों का उत्पीड़न करना व सत्य व निष्पक्ष लिखने वाले पत्रकारों का शोषण करना आजकल खोजी पत्रकारिता के लिए किसी खतरे से कम नहीं है।
अतः राष्ट्रीय एकता,अखंडता,जनजागरण और सामाजिक परिवर्तन हेतु अखबारों को फिर से अपनी भूमिका बदलनी होगी तथा सरकारी समर्थन करने की जगह आमजनता का मुखौटा बनना होगा, अन्यथा विश्वसनीयता पर छाया काला बादल और भी स्याह ही होगा।जिसके जिम्मेदार जहाँ स्वयम अखबार होंगें वहीं खामियाजा पूरा देश भोगेगा।
रिपोर्ट विमलेश विश्वकर्मा ब्यूरो चीफ अंबेडकर नगर
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