दहेज प्रथा सामाजिक अभिशाप एवं कलंक है- प्रियंका गुप्ता

उत्तर प्रदेश (राष्ट्रीय दैनिक कर्मभूमि) जौनपुर

 

 

जौनपुर(मुंगराबादशाहपुर )भारतीय समाज में अनेक प्रथाएं प्रचलित हें। पहले इस प्रथा के प्रचलन में भेंट स्वरूप बेटी को उसके विवाह पर उपहारस्वरूप कुछ दिया जाता था ।परन्तु आज दहेज प्रथा एक बुराई का रूप धारण करती जा रही है। दहेज के अभाव में योग्य कन्याएं अयोग्य वरों को सौंप दी जाती हैं । उक्त बातें मुंगराबादशाहपुर के गुड़हाई मोहल्ला में आयोजित दहेज प्रथा अभिशाप संगोष्ठी में बीएड छात्रा प्रियंका गुप्ता ने कहीं। उन्होंने कहा कि वर्तमान भारतीय समाज में जो कुप्रथाएं प्रचलित हैं, उनमें सर्वाधिक बुरी प्रथा है- दहेज प्रथा। जिसके कारण आम भारतीय त्रस्त, आशंकित एवं कुण्ठित हो रहा है। निश्चय ही दहेज प्रथा एक ऐसा अभिशाप बन गई है जो निरन्तर विकट रूप धारण करती जा रही है तथा प्रतिदिन अनेक युवतियाँ दहेज की बलिवेदी पर अपना बलिदान देने को विवश हो रही हैं। यदि इस दहेज रूपी भयंकर कैंसर का हमने समय रहते उपचार न किया तो यह हमारे समाज के नैतिक मल्यों का क्षरण कर देगा और मानवता सिसकने लगेगी तथा मानवीय मूल्य समाप्त हो जाएंगे।

कहां कि दहेज का शाब्दिक अर्थ है वह सम्पत्ति या वस्तू जो विवाह हेतु एक पक्ष (प्रायः कन्या पक्ष) द्वारा दूसरे पक्ष (प्रायः वर पक्ष) को दी जाती है। आज दहेज प्रथा भारतीय समाज की एक ऐसी अनिवार्य बुराई है, जिससे बच पाना बहुत कठिन है।दहेज बस्तुतः ‘वर मूल्य’ के रूप में प्रचलित हो गया है। और बाकायदा इसे विवाह पूर्व ही निश्चित एवं निर्धारित कर लिया जाता है। कैश एवं सामान की विधिवत् सूची बना ली जाती है, कितना रुपया दिया जाएगा कब-कब दिया जाएगा और क्या- क्या सामान दिया जाए, इसे कन्या पक्ष एवं वर पक्ष के लोग तय कर लेते हैं और जब बातचीत किसी निर्णय पर पहुँच जाती है, तभी विवाह सम्बन्ध स्थिर होता है। वक्ताओं ने आगे कहा कि प्राचीन भारत में भी दहेज प्रथा थी, किन्तु तब की स्थिति दूसरी थी। तब वह स्वेच्छा से दिया जाने वाला स्त्रीधन था, जो कन्या को उपहार में मिलता था। युवक अपनी नई गृहस्थी बसाते थे, वे गृहस्थ जीवन का सरलता से संचालन कर सकें अतः उन्हें आवश्यक वस्तुएं भी उपहार में दी जाती थीं।किन्तु कालान्तर में इसका स्वरूप बदल गया और वर्तमान समय में तो यह दहेज प्रथा समाज का कोढ बन गई है। विवाह के बाजार में ‘वर’ की नीलामी हो रही है, बकायदा उसके ‘रेट’ लगाए जा रहे हैं। कन्या का पिता लाचार होकर ‘वर’ की कीमत चुकाता है। यदि वह दहेज देने से इन्कार करता है, तो उसकी कन्या का पाणिग्रहण करने को कोई तैयार नहीं होता। समाज उस पिता को हिकारत की नजर से देखता है जो सयानी कन्या का समय पर विवाह नहीं कर पाता। समाज की इन नजरों से त्राण पाने का उसके पास यही एक चारा है कि वह विवाह के बाजार में मुंहमांगी कीमत देकर कन्या के हाथ पीले कर दे।

पिता के द्वारा कन्या को या वर को स्वेच्छा से उपहार देने में कोई बुराई नहीं है, किन्तु जब विवश होकर उसे धन देने को बाध्य किया जाता है या फिर धन वसूलने के लिए वर पक्ष के लोग तरह-तरह के हथकण्डे अपनाते हैं। यही कारण है कि भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक कलंक हमारे समाज में व्याप्त है। तभी दहेज एक अभिशाप बन जाता है। कार्यक्रम का संचालन अनुपमा साहू ने किया।

इस अवसर पर ज्योति, माया, पूजा, रोशनी, रागिनी, रानी ,शिखा प्रिया व अनुप्रिया आदि लोगों ने उपस्थित रही।

 

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