शिक्षा का राष्ट्रीयकरण:एक आवश्यक आवश्यकता

लेख संपादकीय

राष्ट्रीय (दैनिक कर्मभूमि) अंबेडकर नगर
किसी भी राष्ट्र के एकीकरण का सबसे सशक्त माध्यम शिक्षा होती है।जिसके चलते व्यक्ति जहाँ समाजीकरण करता हुआ अपने अंतर्निहित शक्तियों का सर्वोत्तम प्रस्फुटन करता है।यही नहीं शिक्षा द्वारा ही व्यक्ति की चिंतन,मनन, मन्थन और आत्मावलोकन की शक्तियों के साथ-साथ राष्ट्रीयता की भावनाओं से ओतप्रोत हो योग्य नागरिक बनता है।जिससे राष्ट्र की बहुआयामी उन्नति तो होती हैं अपितु राष्ट्र आत्मनिर्भर भी बनता है।किंतु भारतीय परिप्रेक्ष्य में एक राष्ट्र और एक विधान होने के बावजूद शिक्षा के विभिन्न बोर्डों और माध्यमों से जहां व्यक्तिगत विभेद को बढ़ावा मिल रहा है वहीं देश भी अपनी संवैधानिक बाध्यताओं का निर्वहन करने में समर्थ नहीं हो पा रहा है।अस्तु शिक्षा का राष्ट्रीयकरण वक्त की नजाकत और एक आवश्यक आवश्यकता से कमतर महत्त्वपूर्ण नहीं है।
दिल्ली स्थित कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस के व्याख्या तथा इंदिरा अवार्ड प्राप्त प्रख्यात शिक्षाविद ज्ञान सागर मिश्र के अनुसार देश में जहां प्रान्तों के अपने -अपने स्वतंत्र बोर्ड हैं,वहीं राष्ट्र स्तर पर नवोदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय सहित संस्कृत,मदरसा,अरबी-फारसी भाषा विशेषों व समूहों के भी अलग-अलग बोर्ड हैं।जिससे पाठ्यक्रमों में पर्याप्त विविधता औरकि अंतर होने से एक ही वय वर्ग कर विद्यार्थियों को एकसमान शिक्षा नहीं मिल पाती है।जिसके चलते शिक्षा के मनोवैज्ञानिक व समाजशास्त्रीय सिद्धांतों का न तो सम्यक अनुपालन हो पा रहा है और न ही निष्पत्तियों का मापन ही।ऐसे में योग्य और एकजैसी विचारधारा वाले एक समृद्ध राष्ट्र के निर्माण हेतु संसाधनों के साथ ही साथ पाठ्यक्रम और सीखने के अवसरों की समानता होनी नितांत आवश्यक है।शिक्षाविदों में प्रायः इस बात को लेकर मतैक्य है कि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद,नई दिल्ली तथा राज्यों की परिषदों को परस्पर मिलकर इस दिशा में काम करने से बेहतर परिणाम मिल सकते हैं।
ध्यातव्य है कि स्वतंत्रता से पूर्व लार्ड मैकाले के छनाई सिद्धांत को आधार मानकर प्राचीन शिक्षा व्यवस्था की जगह लागू की गयी व्यवस्था यद्यपि अब कहीं नहीं है फिर भी राधाकृष्णन आयोग, कोठारी आयोग,मुदालियर कमीशन,राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986,आचार्य राममूर्ति समिति और अब नई शिक्षानीति 2021 सभी में शिक्षा के समान अवसरों की चर्चा अवश्य की गयी किन्तु अवसरों की उपलब्धता हेतु न तो राज्यों को जिम्मेदारी दी गयी और न ही केंद्रीय सरकार को।
ऐसे में शिक्षा के समवर्ती सूची में होने का खमियाजा विद्यार्थियों को उठाना पड़ता है।लिहाजा राज्य अपनी ढपली-अपना राग अलापते हैं जबकि केंद्र चुपचाप अपनी जिम्मेदारियों की इतिश्री करता देखता रहता है।अतएव नीतिनिर्माताओं को चाहिए कि अब शिक्षा को अलग अलग प्रान्तों के आधार पर न थोपकर राष्ट्रीय स्तर पर सरकारों की जिम्मेदारी तय करते हुए प्रस्तावित करें।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार भिन्न-भिन्न बोर्डों के विद्यार्थियों में एक दूसरे को लेकर मानसिक पिछड़ापन बना रहता है।जिससे वे पारस्परिक संवाद और विचारों के प्रस्तुतीकरण में स्वयम को कमतर मानते हुए हीनता की भावना से ग्रसित रहते हैं जबकि केंद्रीय बोर्डों के विद्यार्थी अपने को श्रेष्ठ दिखावा करते हैं।अतः इस मनोवैज्ञानिक समस्या के समाधान हेतु शिक्षा का एकसमान पाठ्यक्रम अवश्यमेव होना चाहिए।
इसप्रकार यह कहना कदाचित प्रासंगिक औरकि समीचीन है कि राष्ट्रीयता के संवर्धन व पोषण तथा समृद्धि हेतु एक ही वय वर्ग के विद्यार्थियों को एकसमान शिक्षा भी मिलनी चाहिए।जिसमें राजभाषा और मातृभाषा का अध्ययन माध्यमिक स्तर पर अवश्यमेव अनिवार्य हो,अन्यथा शिक्षा का दिनोंदिन गिरता स्तर सुधरने की संकल्पना साकार होना मुश्किल है।
-उदयराज मिश्र
नेशनल अवार्डी शिक्षक
9453433900

रिपोर्ट- विमलेश विश्वकर्मा ब्यूरो चीफ अंबेडकरनगर