लेख संपादकीय
राष्ट्रीय (दैनिक कर्मभूमि) अंबेडकर नगर
———————-
शिक्षाशास्त्रियों के अनुसार शिक्षा एक त्रिध्रुवीय प्रक्रिया है।जिसके विद्यार्थी,शिक्षक और अभिभावक रूपी समाज तीन अंग होते हैं।बालक के सर्वांगीण विकास हेतु जहाँ विद्यालय का स्वस्थ और उत्तम परिवेश से युक्त नवाचारों से अभिप्रेरित शिक्षण प्रविधियां महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं वहीं उनके घर का परिवेश,उनकी परवरिश और उनके अभिभावकों की उनके प्रति भूमिका भी कमतर योगदान नहीं देती है।लिहाजा विद्यार्थियों के शिक्षण-अधिगम हेतु योग्य व प्रतिभावान प्रशिक्षित शिक्षकों के साथ-साथ उनके अभिभावकों की चैतन्यता भी आवश्यक होती है।कदाचित कहना अनुचित नहीं होगा कि भागमभाग भरी आज की जिंदगी में अभिभावकों का रोजी-रोटी के साथ-साथ सोशल मीडिया पर अधिक से अधिक समय व्यतीत करना औरकि बच्चों को स्वयम उनके ऊपर छोड़ देने से भी जहाँ बच्चे चिड़चिड़े और बिगड़ैल स्वभाव के होते जा रहे हैं,वहीं उनकी उपलब्धियों में भी गिरावट बढ़ती चिंता का विषय है।जिसपर मन्थन आवश्यक होने के साथ ही अपरिहार्य भी प्रतीत होता है।
वस्तुतः आदिकाल से विद्यालय ही शिक्षा के औपचारिक अभिकरण रहे हैं।जबकि समाज और पुस्तकालय,समाचारपत्र,दूरदर्शन आदि समय के साथ अनौपचारिक एवम अन अनौपचारिक उपागम स्वीकार किये जाते हैं।इसप्रकार कभी शिक्षा को द्विध्रुवीय माना जाने वाला सिद्धांत अब त्रिध्रुवीय औरकि बाल-केंद्रित शिक्षा तक विस्तृत होकर प्रस्तीर्ण हो गया है।किंतु विद्यालयों में दिनोंदिन योग्य और प्रशिक्षित शिक्षकों की गुणवत्ता में जहाँ कमी देखी जा रही है वहीं समाज और परिवार भी अपनी भूमिकाएं निभाने में असफल ही दृष्टिगोचर होते हैं।फलतः शिक्षा भी रटन्त और पुस्तकों तक ही सिमटती जा रही है।यही कारण है कि शिक्षित लोगों की बड़ी फौज बेरोजगार बनी विभिन्न प्रकार की समाज विरोधी क्रियाओं में भी आयेदिन संलिप्त होती जा रही है औरकि दिनोंदिन पढेलिखे असामाजिक तत्वों की संख्या में इजाफा भी इसीओर इंगित करता है।
जानेमाने शिक्षाशास्त्री और कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस,दिल्ली के व्याख्याता ज्ञान सागर मिश्र के अनुसार नौकरीपेशा अभिभावकों के साथ-साथ खेतिहर किसानों के परिवारों के विद्यार्थियों को आजकल अभिभावकों का अपेक्षित सानिध्य नहीं मिल पा रहा है।अभिभावक कहीं कहीं रोजी-रोटी की जुगत में तो कहीं सोशल मीडिया में या फिर सैर सपाटे आदि कार्यों में स्वयम को व्यस्त रखने लगे हैं।ऐसे में वे विस्मृत हो जाते हैं कि उनके पाल्य भी उनकी जिम्मेदारी हैं।जिनकी देखभाल भी इनकी परवरिश जितनी महत्त्वपूर्ण होती है।ध्यातव्य है कि जिन परिवारों में माता-पिता दोनों ही नौकरी करते हैं,उनके बच्चों में मनोवैज्ञानिक रोगों के लक्षण समयपूर्व ही ज्यादा परिलक्षित तथा प्रकट होते हैं,कारण कि ऐसे अभिभावक कम्प्यूटर,लैपटॉप और मोबाइल को ही बच्चों की शिक्षा और गृहकार्य के लिए महत्त्वपूर्ण मानने लगे हैं।कदाचित रही सही कसर कोरोना ने भी पूरी कर दी।जिसके चलते गांव-शहर सभी सोसल मीडिया की लत के शिकार हो गए और बच्चों को अभिभावकों के स्नेह तथा सानिध्य से वंचित होना पड़ा है।श्रीमिश्र के अनुसार अभिभावकों को प्रतिदिन बच्चों के साथ बातचीत करते हुए,उनकी पढ़ाई, पसंद और समस्याओं पर भी चर्चा करनी चाहिए।इतना ही नहीं शिक्षित अभिभावकों को बच्चों के गृहकार्य इत्यादि पर भी नजर रखनी आवश्यक है।
शिक्षा व्यवस्था में अभिभावकों की सहभागिता और उचित शिक्षण-अधिगम परिवेश के सृजन हेतु ही देश के माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षक-अभिभावक संघों एवम पूर्व माध्यमिक स्तर पर स्कूल मैनेजमेंट एंड डेवलपमेंट कमेटियों के गठन की भी व्यवस्था सरकारों ने हालांकि अधिनियमित कर दी है किंतु आज भी ये अपने जीवंत स्वरूप को प्राप्त न कर उगाही और शोषण की ही प्रतीक बनकर रह गयी हैं।अतः इन कमेटियों का सतत पर्यवेक्षण और निगरानी आवश्यक है,ताकि अभिभावकों की ज्यादा से ज्यादा सहभागिता हो सके।
इस प्रकार यह कहना समीचीन और प्रासंगिक है कि बच्चों के उचित विकास हेतु विद्यालयों के साथ ही अभिभावकों को भी पहले से अधिक गुरुतर भूमिका निभानी होगी अन्यथा सारी बातें बेमानी होंगीं।
-उदयराज मिश्र
नेशनल अवार्डी शिक्षक
9453433900
रिपोर्ट-विमलेश विश्वकर्मा ब्यूरो चीफ अंबेडकरनगर
You must be logged in to post a comment.